कबीर के 200 दोहे अर्थ सहित – कबीर के दोहे का अद्वितीय साहित्यिक और धार्मिक महत्व है। उनकी रचनाएं हमें सत्य, समानता, दया, और भ्रातृभाव के महत्व को समझने का अद्वितीय साधन प्रदान करती हैं। उनके दोहे में संक्षेप में व्यक्त होने वाले तत्त्व हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं। यहां हमने आपके साथ हिंदी में कबीर के 200 दोहे अर्थ सहित? साझा किए हैं
कबीरदास 15वी सदी के सबसे क्रांतिकारी व्यक्ति थे। इन्होंने अपनी कविताएं तथा दोहे के माध्यम से समाज में काफी बदलाव करने चाहे। कबीर के दोहे विश्व भर में आज तक प्रचलित है। हम इस पोस्ट पर कबीर के 200 दोहे हिंदी में अर्थ सहित विवरण दिए गए हे। आप इस पोस्ट की माध्यम से संत कबीर दास के दोहा (kabirdas ka doha)और उसकी सम्पूर्ण अर्थ को हिंदी भाषा में जान सकते हे। आज हम कबीर के दोहे हिंदी में अर्थ सहित (Kabir Ke Dohe In Hindi) पड़ेंगे।
कबीर के 200 दोहे अर्थ सहित – Kabir Ke Dohe In Hindi Meaning
कबीर दास के 10 दोहे अर्थ सहित
1.दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, दुख कहे को होय।।
अर्थ – अपने दुख में हर कोई ईश्वर को याद करता है लेकिन क्या कभी आपने सुख में ईश्वर को याद किया है अगर सुख में कोई ईश्वर को याद कर ले, उसे दुख कभी होयेगा ही नहीं।

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2. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ – जब इस संसार में हम बुरा देखने चलते हैं तो हमें कोई बुरा नहीं मिलता लेकिन वही अगर आप अपने मन के अंदर जाकर देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि आपसे बुरा तो कोई और है ही नहीं।
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3. तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखों पड़े, पीर घानेरी होय।।
अर्थ – इस दोहे के द्वारा कबीर कहना चाहते हैं कि चाहे कोई तिनका छोटा सा ही क्यों ना हो, उसकी निंदा न कीजिए। क्या पता वही तिनका आपके आंखों में आ गिरे और आपको गहरी पीड़ा पहुंचाए।
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4. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
अर्थ – इस दोहे का अर्थ होता है कि आप कितनी भी बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ ले आप अज्ञानी ही रह सकते हैं लेकिन अगर आप प्रेम के ढाई अक्षर भी अच्छे से पढ़ ले तो आप विद्वान बन सकते हैं।
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5. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥
अर्थ – हाथ में मोतियों की माला लेकर उसे फेरते रहने से हमारा मन शांत नहीं होता। कबीर कहते हैं कि हाथ में माला फेरने से अच्छा हम अपनी मन की माला को फेरे और मन को शांत करें।
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6. माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मूई, यों कहीं गए कबीर।।
अर्थ – हमारा शरीर चाहे कितनी भी बार मर जाए लेकिन जो माया और मोह है वह कभी नहीं मरता यानी कि हमारा मन कभी नहीं मरता।
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7. गुरु गोविन्द दोनो खड़े, काके लागूं पायँ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय॥
अर्थ – अगर आपके सामने आपका गुरु तथा भगवान दोनों खड़े हो जाएं तो आप किसे पहले प्रणाम कीजिएगा? कबीर दास जी अपने दोहे के द्वारा ऐसा कहते हैं कि पहले गुरु को प्रणाम करें क्योंकि उसी ने तुम्हें बताया कि वह ईश्वर है।
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8. काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब।।
अर्थ – जीवन में समय का महत्व समझना अति आवश्यक है। यहां पर कबीर दास कहना चाहते हैं कि जो कल करना है वह आज करो तथा जो आज करना है वह अभी करो और जल्द से जल्द अपने काम को पूरा करने की कोशिश करो। अपने काम में टालमटोल करना कोई अच्छी बात नहीं है।
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9. बिलहारी गुरू आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार॥
अर्थ – इस दोहे के द्वारा कबीरदास कहना चाहते हैं कि वह अपने उस गुरु को अपना हर समय सौंप देंगे जिन्होंने अपना कीमती समय लगा कर उन्हें मनुष्य से देवता बनाया।
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10. लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पीछे फिर पछ्ताओगे, प्राण जाहि जब छूट।।
अर्थ – यहां पर राम नाम से भगवान को दर्शाया गया है कबीरदास कहते हैं कि हम जितनी श्रद्धा से दुख में भगवान को याद करते हैं। उतनी ही श्रद्धा से अगर सुख में भी भगवान को याद करें, दुख होगा ही नहीं।
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11. कबीरा माला मनहि की, और संसारी भीख।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख॥
अर्थ – कबीर के हिसाब से भीख मांगना सबसे बुरी चीज है तथा भीख मांगने से आपको कुछ प्राप्त नहीं होगा। उसी के बदले अगर आप थोड़ा सा भी ध्यान एकत्रित करके अपने मन की माला को फेरे तो आपको आपका मन पहले से ज्यादा शान्त प्रतीत होगा।
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12. जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
अर्थ – जो लोग मेहनत करते हैं, उन्हें उसका फल अवश्य ही मिलता है। दुख की बात यह है कि हमारे संसार में ऐसे कई लोग हैं जो पहले ही हार मान लेते हैं और ऐसा करने की वजह से उन्हें जिंदगी के अंतिम काल तक कुछ प्राप्त नहीं होता।
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13. जाति न पूछो साधुकी, पूिछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥
अर्थ – हमें किसी की जाति पूछ कर उसके ज्ञान का मोल नहीं करना चाहिए। प्रयोग में आने वाली तलवार का मोल किया जाता है उसके म्यान का नहीं।
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14. निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
अर्थ – जो इंसान भी आपकी निंदा करता है, उसे हमेशा अपने पास रखें क्योंकि वह बिना किसी चीज की मांग किए आप को और बेहतर बनाता है। ना तो वह साबुन मांगता, ना हीं पानी लेकिन फिर भी आपके मन को और भी निर्मल करता है।
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15.जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप॥
अर्थ – कबीर दास जी ऐसा कहते हैं कि जहां पर दया है, वहीं पर धर्म बसता है। जहां पर अपना फायदा देखा जाता है या क्रोध होता है वहीं पर पाप होते हैं तथा जहां पर क्षमा होती है वहां ईश्वर का वास होता है।
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16. मन जाणे सब बात, जाणत ही औगुण करै।
काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े।।
अर्थ – इस दोहे का अर्थ यह है कि हमारे मन को हमेशा से ही सही तथा गलत हर चीज की जानकारी होती। फिर भी कुछ लोग गलत रास्ते पर चले जाते हैं। ऐसे लोगों के गुणों को कैसे तोला जा सकता है।
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17.धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सीचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥
अर्थ – इस दोहे का सीधा साधा अर्थ यह है कि आप कितनी भी मेहनत कर ले, उसका फल समय आने पर ही मिलेगा लेकिन अवश्य मिलेगा। हमें अपने जीवन में धीरज को अपनाना चाहिए। माली फल के लिए अपने पेड़ों को चाहे 100 घड़ों से ही सीच दे लेकिन फल सही ऋतु आने पर ही मिलेगा।
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18. आछे दिन पाछे गए हरी से किया ना हेत।
अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गई खेत।।
अर्थ – लोगों के जब अच्छे दिन होते हैं तब वे संतुष्ट रहते हैं और एक बार भी ईश्वर से प्यार करने की कोशिश नहीं करते लेकिन वही जब उनके अच्छे दिन चले जाते हैं तो उनहे अफसोस होता है अपने कीमती समय को गंवाने का।
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19. कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और।
हरि रुठे ठौर है, गुरु रुठै नही ठौर॥
अर्थ – अगर आप भगवान को अप्रसन्न करते हैं तो उससे बचने के लिए आप गुरु की शरण में तो जा सकते हैं लेकिन अगर आपका गुरु ही आपसे अप्रसन्न हो जाए तो फिर भगवान भी आपको नहीं बचा पाएंगे उसके प्रकोप से।
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20. कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं।
पारै पहुंचे नाव ज्यौ, मिलिके बिछुरी जाहिं।।
अर्थ – इस दुनिया में ना हम किसी के ना कोई हमारा है।
एक ना एक दिन सब कोई छूट जाएगा। हम सारे बंधन छोड़ कर मृत्यु की ओर प्रस्थान करेंगे।
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Top 21 to 40 कबीर के दोहे अर्थ सहित
21. पाचँ पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय।
एक पहर हिर नाम बिन, मृत्यु कैसे होय॥
अर्थ – यहां पर कबीर पूछते हैं कि पांच पहर तो काम में ही चले गए, 3 पहर सोने में बिता दिए। अगर एक पहर भी प्रभु का नाम नहीं लिया तो मृत्यु कैसे आ सकती है?
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22. मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।।
अर्थ – अगर इंसान अपने मन से ही हार गया, अगर उसने अपने मन में ही खुद को हारा हुआ मान लिया तो फिर वह जीत कैसे सकता है। जीत तथा हार मन की ही भावनाएं हैं। ईश्वर के करीब जाने के लिए भी हमें अपने मन में सच्चाई और श्रद्धा रखनी होगी तथा ईश्वर में पूर्ण विश्वास करना होगा।
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23. कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान।
जम जब घर ले जायेगे, पड़ी रहेगी म्यान॥
अर्थ – सोए सोए समय काटने से ज्यादा बेहतर है कि उठकर थोड़ी देर भजन गुनगुना लिया जाए। जब मृत्यु होगी और यमराज प्राण लेने आएगा तक शरीर तो रह जाएगा लेकिन आपकी आत्मा ही निकल कर उनके साथ जाएगी।
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24. साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
अर्थ – हमें अपने जीवन में ऐसे गुरुओं की जरूरत है जो सूप की तरह हो। जिस तरह से सूप अनाज साफ करते वक्त हल्की चीजों को तो उड़ा देता है लेकिन वजनदार चीजों को अपने साथ ही रखे रहता है।
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25. शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन॥
अर्थ – सबसे सर्वोच्च गुण होता है विनम्र होना। अगर आप विनम्र हैं तो आपको अपने जीवन में सम्मान मिलेगा। आप चाहे कितना भी ज्ञानी हो जाए, बिना विनम्रता के कोई भी आपका सम्मान नहीं करेगा। विनम्रता पाने के लिए मन को हर परिस्थिति में शांत रहना सिखाना पड़ता है।
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26. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि हाथ के माला को फेरने से कुछ नहीं हासिल होगा। फेरनी है तो मन के माला को फेरों। अगर मन में चल रहे तूफान को शांत करना है तो मन में पड़ी मोतियों की माला को फेरना आवश्यक है।
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27. माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौदूंगी तोय।।
अर्थ – माटी कुम्हार से कहती है कि आज तो तू अपने पैरों तले मुझे रौंद रहा है लेकिन याद रखना एक दिन ऐसा आएगा जिस दिन मैं तुझे रौदूंगी।
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28. कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर।।
ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि ना तो उनकी किसी से दोस्ती है, ना ही किसी से बैर। जब इंसान कबीर बनने लगता है या कबीर के जैसा बनने लगता है तो अगर किसी का भला न चाहे तो बुरा भी न चाहता है।
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29. रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय॥
अर्थ – कबीर इस दोहे के माध्यम से कहते हैं कि आपने अपनी रात सोने में गवा दी और दिन का समय खाने पीने में गवा दिया। हीरे जैसा अनमोल जीवन आपने ऐसे ही निकाल दिया।
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30. करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ से खाय।।
अर्थ – जब आप गलत करेंगे तो उसका परिणाम भी तो गलत ही मिलेगा। बबूल का पेड़ होने पर, उस पर आम कैसे उगेंगे। हम जो भी कर्म करते हैं उसका पश्चाताप भी हमें ही करना होता है और इसी जन्म में करना होता है।
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31. नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग॥
अर्थ – कबीरदास यहां पर हमें जागने के लिए कहते हैं गलत नशे से जैसे कि ड्रग्स या अन्य रासायनिक पदार्थ। इन रसायनों का प्रयोग छोड़कर हमें योग की तरफ बढ़ना चाहिए। योग भी एक नशे की तरह है, बस लत लगनी काफी है।
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32. जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं।
प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं।।
अर्थ – जब तक मन में अहंकार होगा तब तक आपको ईश्वर नहीं मिलेंगे। अगर आप ईश्वर को साक्षात्कार अपने प्रमुख देखना चाहते हैं तो आपको अपने मन से अहंकार का वजूद ही मिटाना होगा।
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33. जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल॥
अर्थ – अगर कोई तुम्हारे लिए काटे बोता है फिर भी तुम उसके लिए फूल ही बोना क्योंकि फूल बोने के बदले में तुम्हें फूल मिलेंगे और कांटे बोने के बदले उसे कांटे। आप जैसा करते हैं आपको वैसा ही मिलता है। यह सृष्टि का नियम है।
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34. दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरूवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार॥
अर्थ – मनुष्य का जन्म बहुत घोर तपस्या करने से मिलता है। इसे व्यर्थ का बर्बाद ना करें। यहां पर तुलना की गई है मनुष्य के शरीर की पेड़ की डाली पर लगे पत्तों से। पेड़ के पत्ते जिस तरह एक बार गिर गए तो फिर बार-बार वहां पर नहीं आते उसी तरह मनुष्य का शरीर भी बार बार नहीं मिलता है।
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35. बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।।
अर्थ – इस दोहे के माध्यम से कबीर कहते हैं कि जब आप किसी के लिए भला कर ही नहीं सकते हैं तो फिर आपके इस संसार में रहने का क्या फायदा। खजूर पेड़ की तरह लंबे होने से ना तो आप पंछी को छाया प्रदान कर पाएंगे ना ही आपके फल कोई खा पाएगा। इस तरह से उस पेड़ का क्या ही फायदा।
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36. आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधेे जात जंजीर॥
अर्थ – इस दुनिया में जो भी आया है वह एक ना एक दिन तो इस संसार को छोड़कर गया ही है। चाहे राजा हो, रंक हो या फिर हो फकीर मरना तो सभी को है एक दिन। इसी जीवन में कोई बड़े काम करके सिंहासन पर चढ़ जाता है तो कोई जाति जात के विवादों में ही फंसा रह जाता, अपनी जिंदगी काट लेता है।
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37. माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥
अर्थ – भीख मांगने से तो बेहतर है कि इंसान मौत के मुंह में ही चला जाए। सतगुरु कहते हैं कि हमें अपने बल पर ही चीजों को हासिल करना चाहिए। किसी से भीख मांगना मरने के बराबर होता है।
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38.जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग।
कह कबीर यह क्यों मिटे , चारों धीरज रोग ॥
अर्थ – एक मनुष्य में जब घमंड आ जाता है, तब उस पर कई आपदाएं आप पड़ती हैं। उसी तरह से जब मनुष्य में संकोच आ जाता है, तब वह काफी मुश्किलों से गुजरने लगता है। कबीर बताते हैं कि इन बीमारियों का एक ही हल है। वह है योग जिससे कि हमें धीरज प्राप्त होगा है।
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39.माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय॥
अर्थ – माया और छाया एक जैसी ही होती है। इसे हर कोई नहीं समझ सकता कोई कोई ही इसे जानता है। यह उन्हीं के पीछे भागती है, जो भागते हैं। जो इंसान इसके सामने खड़ा हो जाए, इनका सामना करने के लिए वह इन्हीं से भाग जाती है।
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40. आया था किस काम को, तु सोया चादर तान।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान।।
अर्थ – तू किस काम को करने इस दुनिया में आया था ए इंसान? तू तो अपना समय व्यर्थ ही बर्बाद कर रहा है चादर को तान कर सोने में। उठो और कुछ काम करो जिससे तुम्हारे जीवन का मकसद सफल हो।
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Top 41 to 60 कबीर के दोहे अर्थ सहित
41. क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह।
साँस – सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह॥
अर्थ – हमारे शरीर का क्या ही भरोसा है जो हर पल में मितता ही जा रहा है। अब तो एक ही उपाय रह गया है कि अपने हर सांस में अब हरि का जाप किया जाए। इसके अलावा कोई और तरीका बचा नहीं।
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42. गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच॥
अर्थ – कबीर दास जी ऐसा कहते हैं कि अपशब्द एक बीज की तरह होता है जिससे एक व्यक्ति के अंदर क्रूर विचारों की उपज होती है जैसे कि कष्ट कलह तथा दुष्टता। जो इसे देखकर अपना रास्ता बदल ले वैसे इंसान साधु में तब्दील होते हैं और जो इन्हें अपना ले वह नीच बन जाते हैं।
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43. दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय॥
अर्थ – कबीर दास जी के द्वारा इस दोहे में कहा गया है कि अगर आपके सामने कोई दुर्लभ इंसान है तो कृपा करके उसे ना सताए। एक इंसान में कितनी बल है यह कोई नहीं आक सकता। जिस तरह से एक मरे हुए जानवर की खाल को जलाने से लोहा तक उसके सामने पिघल जाता है।
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44. दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर।।
अर्थ – कबीर दास जी ऐसा कहते हैं कि दान देने से कभी भी आपका धन कम नहीं होगा जिस तरह से नदी का पानी पीने से घट नहीं जाता। उसी तरह से दान देने से धन कभी कम नहीं होता।
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45. दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन॥
अर्थ – हमारा शरीर एक अजीब सा दस दरवाजों का पिंजरा है। इस पिंजरे के अंदर आत्मा एक पंछी बनकर बंद है। यदि आत्मा इस पिंजरे से निकल जाए तो अचंभे कि क्या ही बात है यानी की मौत से हमें कैसा अचंभा। यह तो हर इंसान के जीवन में लिखा ही है।
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46. हीरा वहाँ ना खोलिये, जहाँ कुजड़ों की हाट।
बांधो चुप की पॉटरी, लागहू अपनी बाट॥
अर्थ – अपना ज्ञान वही दीजिए है जहां उस ज्ञान की कदर हो। हीरे की पॉटरी उस जगह खोलने का क्या ही फायदा जहां पर उन हीरो की कोई कदर ना की जाए। इससे अच्छा तो यही है कि अपनी पॉटरी बांधे और अपनी राह को नापे।
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47. कुटिल वचन सबसे बुरा, जारी कर तन हार।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार॥
अर्थ – कभी भी हमें कठोर शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। आप नहीं जान पाएंगे आप की एक कठोर बात से सामने वाले का तन कितना जल सकता है। एक साधु का वचन जल की तरह पवित्र और शीतल होता है। वह अमृत की तरह बरसता है और हर किसी के ह्रदय को लाभ पहुंचाता है।
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48. मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोव न कोय।
मोको रोव सोचना, जो सब्द बोय की होय॥
अर्थ – कबीर जी इस दोहे के द्वारा कहते हैं कि उनका दर्द कोई नहीं समझता लेकिन वह हर किसी का दर्द समझते हैं। सबके सामने रोने के बावजूद भी उनका दर्द वही समझ सकता है जो उनके शब्दों को समझता है।
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49. सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, सकित सिंह और साँप ॥
अर्थ – इस दोहे के द्वारा कबीर दास कहते हैं कि अगर आपको कोई साधु सोता प्रतीत हो तो उसे जरूर जगाएं क्योंकि साधु अगर जगेगा तो वह ज्ञान की बातें करेगा तथा हमें परमात्मा के और करीब ले जाएगा लेकिन अगर आप किसी जहरीले सांप को या शेर को जगाएंगे तो वह गलत काम करेगा।
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kabir ke dohe in hindi
50. अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाठँ से खात॥
अर्थ – इस दोहे के द्वारा कबीर जी शराब के भारी सेवन की निंदा करते हैं। शराब तथा कोई भी नशीली पदार्थ का थोड़ा बहुत सेवन करना तो ठीक है लेकिन अधिक सेवन से हमारी युवा पीढ़ी का भविष्य संकट में आ सकता है।
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51. बाजीगर का बादरां, ऐसा जीव मन के साथ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ॥
अर्थ – क्या आपने कभी बाजीगर और बंदर को देखा है? किस तरह से वे एक दूसरे का साथ देकर, एक दूसरे के साथ घुल मिलकर अपना काम करते हैं। बाजीगर बंदर को अलग-अलग खेल खिलाता है और बंदर हमारा मनोरंजन करता है। बिल्कुल इसी तरह से जीव और मन है। मन हमेशा ही जीव को भटकाने की फिराक में रहता है।
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52. अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट॥
अर्थ – अगर किसी योद्धा के शरीर में भाल की टूटी हुई नोख गड़ जाए तो चुंबक का इस्तेमाल करना अति आवश्यक हो जाता है उसे निकालने के लिए। बिल्कुल इसी तरह से अगर मन में बुराई प्रवास करें तो उसे किसी सद्गुरु के द्वारा ही निकालना संभव है।
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53. कबीरा जपना काठ की, क्या दिखलावे मोय।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय॥
अर्थ – कबीर कहते हैं कि लोग उनके सामने लकड़ी से बनी माला जपते हैं। उस माला को जपना फिजूल है। कबीर पर उनका कोई असर नहीं होने वाला। जब तक आप सच्चे दिल से ईश्वर की प्रार्थना न करें, तब तक कबीर को प्रसन्न करना मुश्किल है।
kabir das ji ke dohe
54. पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप॥
अर्थ – पवित्रता चाहे मैली ही क्यों ना हो वह सबसे खूबसूरत होती है। एक पवित्र इंसान की खूबसूरती का कोई तोड़ नहीं। कबीर कहते हैं कि वह तमाम प्रकार की सुंदरता को पवित्रता पर निछावर कर सकते हैं।
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55. बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार॥
अर्थ – एक चिकित्सक, जो इंसान हजारों जिंदगी यों की रक्षा करता है उसे भी एक ना एक दिन मरना ही है। हर व्यक्ति जिसने संसार में जन्म लिया है वह एक दिन मर जाता है। हमें से अमर वही हो पाते हैं जिन्होंने राम नाम की जाप की है।
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56. हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध॥
अर्थ – यहां पर चलने का मतलब जाप करने से है। वह इंसान होते हैं जो रोज थोड़ा थोड़ा जाप करते हैं। वे साधु होते हैं जो एक इंसान की तुलना से काफी अधिक जाप करते हैं लेकिन वे जो जाप ही नहीं करते उन्हें क्या अगाध है पता नहीं।
57. राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश॥
अर्थ – राम का नाम तो हर कोई जपता है लेकिन वह इंसान जो राम का नाम तो जपते हैं लेकिन राम की सेवा नहीं करते, ना ही राम को अपने हृदय में रखते। ऐसे लोगों को कबीर पाखंडी का नाम देता है। इस तरह की झूठी भक्ति से कुछ प्राप्त नहीं हो सकता।
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58. जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच॥
अर्थ – कभी भी हमें वैसे इंसानों से लाभ प्राप्त नहीं हो सकता जो खुद ही सच्चाई के मार्ग पर नहीं चलते या ह्रदय में कठोरता रखते हैं। कबीर का मानना है कि इस तरह के व्यक्ति से हमें हमेशा ही दूरी बनाकर रहनी चाहिए। ऐसे व्यक्ति आपका कभी लाभ नहीं कर सकते। वह सिर्फ अपना लाभ करना जानते हैं।
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59. तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार॥
अर्थ – कबीर दास का मानना था कि अगर आप तीरथ यात्रा पर चले जाते हैं तो आपको एक फल की प्राप्ति होगी। अगर किसी संत से मिलकर आते हैं तो आपको चार फल की प्राप्ति होगी लेकिन अगर आपको सद्गुरु ही मिल जाए तो अनेक फलों की प्राप्ति होती है। इसके बाद जीवन में किसी भी अन्य वस्तु का विचार नहीं आता।
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60. सुमरण सेमन लाइए, जैसे पानी बिन मीन।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन॥
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जिस तरह से मछली पानी के बिना तरसती है, उसी तरह से हमें भी हर पल अपने ईश्वर को ढूंढना चाहिए और उनके बिना तरसना चाहिए।
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Top 61 to 80 kabirdas ka doha with Hindi meaning / कबीर दास के दोहा
61.समझाये समझे नही, पर के साथ बिकाय।
मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए॥
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मैं तो तुम्हें हर वक्त ही समझाता रहता हूं लेकिन तुमने तो जैसे मेरी बात न मानने की ठान रखी हो। मैं तुम्हें अपनी तरफ खींचता हूं और तुम जौनपुर की तरफ अग्रसर करते हो।
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62. कहना था सो कह दिया ,अब कछु कहा न जाय।
एक गया सो जा रहा ,दरिया लहर समाय।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि एक गुरु की मुख्य भूमिका है अपने शिष्य के जीवन में कि वे उसे आत्मा तथा परमात्मा से जुड़े सारे ही ज्ञान दें। किस तरह से आत्मा हमारे शरीर से निकलकर परमात्मा में यू समा जाती है जैसे लहर दरिया में।
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63. लाली मेरे लाल की ,जित देखूं तित लाल ,
लाली देखन मैं गई ,मैं भी हो गई लाल।
अर्थ – आत्मा कहती है कि मेरे परमात्मा का रूप तो लाल है जो कि एक प्रेम का रंग है। कुछ इस कदर वह अपने परमात्मा के रंग में रंग गई है क्यों नहीं परमात्मा का रंग ही हर तरफ दिखाई देता है जो कि लाल है। उन्हें ऐसा लगता है कि वह भी परमात्मा के रंग में रंग गई हैं।
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64. कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति ना होये।
भक्ति करै कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोये।।
अर्थ – वे लोग जो लालच तथा क्रोध करते हैं उनसे भक्ति की भावना उम्मीद करना व्यर्थ ही है। इस तरह के लोग कभी भी भक्ति नहीं कर सकते। भक्ति वही कर सकता है जिसका ह्रदय शांत हो तथा जिसे परमात्मा में विश्वास हो।
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65. साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
अर्थ – कबीर दास जी ऐसा कहते हैं कि एक सज्जन इंसान ऐसा होना चाहिए जो अच्छाई को अपने पास रखें और बुराई को उड़ा दे। बिल्कुल उसी तरह जिस तरह सूप होता है जो भारी पदार्थ को अपने पास रखता है और हल्की को उड़ा देता है।
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66. भक्ति गेंद चौगान की, भावै कोई ले जाय।
कह कबीर कछु भेद नहिं, कहा रंक कहा राय।।
अर्थ – कबीर दास जी यहां पर भक्ति की तुलना एक खेल से करते हैं। वह कहते हैं कि भक्ति चौहान का खेल है। भक्ति अमीर और गरीब को नहीं तोलती। चाहे वह रंक हो या हो राजा भक्ति को कोई भी ले सकता है।
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67. घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार।
बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार॥
अर्थ – कबीरदास हमें यहां पर सलाह देते हैं कि सारे ही मनुष्य अपने मन के अंदर के पर्दे को हटाए ताकि वह पूरी तरह से परमात्मा यानी कि ईश्वर से अवगत हो सके।
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68. प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय॥
अर्थ – प्रेम करने वाले को कभी भी किसी का डर नहीं होता तथा जो डरते हैं वह कभी भी सच्चे दिल से प्रेम नहीं कर पाते। जो लोग प्रेम करते हैं वे अपना सर कटने से डरते नहीं। कबीर दास का मानना है कि एक सच्चा प्रेमी कभी अपना सर धड़ से अलग करने से कतराता नहीं।
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69. नेह निबाहन कठिन है, सबसे निबहत नाहि।
चढ़बो मोमे तुरंग पर, चलबो पाबक माहि।।
अर्थ – हर किसी के बस का नहीं होता है प्रेम को निभाना। इसे निभाना काफी कठिन है। जैसे आग में बने मोम पर चलना कठिन है बिल्कुल उसी तरह से प्रेम के सच्चे डोर को पवित्रता से निभाना सबके बस की बात नहीं।
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70. सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग।
कहै कबीर बिसरे नही, प्रान तजे तेहि संग॥
अर्थ – कबीर कहते हैं कि ईश्वर के नाम का हमेशा स्मरण करना चाहिए। चाहे सुख हो या हो दुख ईश्वर को याद करने से हमेशा भला ही होगा। हमें अपनी अंतिम सांस तक नहीं भुलना चाहिए ईश्वर को याद करना।
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71. सुमिरत सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल॥
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि दुनिया भर से अपना ध्यान हटा के एक तरफ ध्यान करना ही उचित है। वह कहते हैं कि हमें बाहर से ज्यादा अंदर के हाल-चाल पर ध्यान देनी चाहिए।
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72. ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग।।
अर्थ – कबीर दास जी का मानना था कि ईश्वर हम सबके अंदर ही बसा होता है। हमारी आत्मा परमात्मा का ही एक हिस्सा होती है। वह इस दोहे में कहते हैं कि जिस प्रकार से तिल के अंदर तेल है, आग के अंदर रोशनी उसी प्रकार से हमारे अंदर ईश्वर का वास है।
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73. जा करण जग ढूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नांहि॥
अर्थ – हमें बचपन से ही बताया जाता है कि भगवान आसमान में होते हैं। हम सभी के ऊपर होते हैं। वे हमारे परमात्मा है। कबीर दास ऐसा नहीं मानते थे। कबीर दास का मानना था कि भगवान हमारे हृदय के अंदर ही बसते है बस झांकने की देर है।
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74. जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश।
मानो चिगरी आग की, परी पुरानी घास॥
अर्थ – जिस तरह से आग की एक चिंगारी अपने लपेट में पूरे घास को लेकर जला डालती है। उसी तरह से जब मैंने राम का नाम लिया तो लगा कि मेरे अंदर के सारे पाप नष्ट हो चुके हैं।
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75. नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ।।
अर्थ – कबीर दास जी ऐसा कहते हैं कि जितना शीतल एक सज्जन व्यक्ति होता है उतना शीतल ना तो उन्हें चंद्रमा लगता है ना ही बर्फ का गोला। वह मानते हैं कि एक सज्जन व्यक्ति अपनी शीतलता से, अपने पवित्र हृदय से हर किसी के मन को लोभ लेता है।
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76. इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥
अर्थ – जिंदगी के मोड़ पर हम कई लोगों से मिलते हैं तथा कई लोगों से बिछड़ते हैं। कबीर जी ऐसा कहते हैं कि हमें कभी ना कभी तो सब से बिछड़ना पड़ेगा ही। वह सावधान करते हैं राजाओं को तथा छत्रपतियों को क्योंकि अगर अभी ज्यादा लगाओ कर लिया तो बिछड़ते वक़्त बड़ी दुख होगी।
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77. बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
अर्थ – बोली एक ऐसी बान है जो एक बार अगर आपके मुंह से निकल गई तो उसे वापस लेना असंभव है। एक समझदार व्यक्ति हमेशा सोच समझ के किसी के भी सामने कुछ भी बोलता है क्योंकि उसे बातों का महत्त्व पता होता है।
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78. दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत ।
अर्थ – कबीर जी ऐसा कहते हैं कि मनुष्य की आदत होती है दूसरों के दोष को हंसते-हंसते देखने कि। वे जब दूसरों के दोष को देखते हैं तब उनहे अपने दोष याद नहीं आती जिसका तो कोई अंत ही नहीं है।
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79. नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए।।
अर्थ – कितना भी नहा लो या बाहर से खुद को साफ कर लो लेकिन अगर तुम्हारे मन का मैल ही नहीं गया तो तुम कैसे साफ हुए। हम मनुष्य खुद को साफ करना तो याद रखते हैं लेकिन अपने मन को साफ करना भूल जाते हैं।
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80. कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।।
अर्थ – हम अपनी रोज की उलझनों को ही सुलझाते रेहते हैं लेकिन आखिर में पता चलता है कि अभी भी कई उलझनों को सुलझाना बाकी है। हम अपने मन की उलझनों को ही सुलझा नहीं पाते बाहर कि उलझनों में ही रह जाते हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण तो यही है कि हम पहले मन की उलझनों पर ध्यान दें।
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Top 81 to 100 कबीर के दोहे अर्थ सहित
81. ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग।
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत।
अर्थ – वे लोग जो अच्छे तथा सच्चे लोगों के साथ अपना वक्त नहीं बताते या अपना पूरा ध्यान अपने लाभ पर लगाते हैं वैसे लोगों का पूरा जीवन व्यर्थ है। उन्होंने जीवन में आकर सिर्फ अपना समय ही बर्बाद किया। जो लोग इस संसार में आकर प्रेम करना नहीं सीखे वह पशु के बराबर है।
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82. ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि।
मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं।।
अर्थ – कबीर कहते हैं वे लोग जो बाहर ईश्वर को ढूंढते हैं वह मूर्ख हैं क्योंकि वह यह बात जानते ही नहीं कि ईश्वर तो हम सबके हृदय में बसा है। ईश्वर को बाहर ढूंढने की कोई आवश्यकता नहीं है अपने हृदय में झांककर ईश्वर को ढूंढिए।
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83. जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थ – आप के गुण की कीमत सही गुणकारी लोगों के द्वारा ही की जाएगी। जब आपके सामने सही ग्राहक आएंगे तभी आप के गुण की सही कीमत तो ली जाएगी वरना आपका गुण तो व्यर्थ ही जाने वाला है।
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84. बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार।
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि तुमसे जितना हो सके तुम इस मनुष्य जीवन में अच्छे कर्म कर लो। मनुष्य के रूप में जन्म हर बार नहीं मिलता। अगर आपको मनुष्य के रूप में जन्म मिला है तो अच्छे काम करें जैसे सतगुरु की सेवा तथा राम का जाप।
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85. हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।।
अर्थ – जिस तरह से खेत की पूरी खास आग के एक ही लपेटे में आकर जलकर भस्म हो जाती है। इसी तरह से हमारा मानव शरीर भी है। लकड़ी पर हमारा शरीर पल भर में भस्म हो जाता है। इस शरीर पर क्या ही घमंड करना जिसे एक न एक दिन जलना ही है।
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86. कागा का को धन हरे, कोयल का को देय।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय।।
अर्थ – हमारी मीठी बोली हर किसी को लोभ सकती हैं। कौवे ने आज तक किसी का धन नहीं चुराया फिर भी लोग उसे पसंद नहीं करते और कोयल से आज तक किसी को धन की प्राप्ति नहीं हुई फिर भी लोग उसे पसंद किया करते हैं। ऐसा फर्क इसलिए देखने मिलता है क्योंकि कोयल की बोली बहुत मीठी होती है तथा हमारे मन को आकर्षित कर लेती है।
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87. आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद।
नाक तलक पूरन भरे, तो का किहए प्रसाद॥
अर्थ – कबीरदास यही कहते हैं कि हमें उतना ही आहार ग्रहण करना चाहिए जितने की आवश्यकता है। आवश्यकता यानी कि जिंदा रहने के लिए जितने अन्य की आवश्यकता है उतनी की पूर्ति होनी चाहिए हमारे शरीर में।
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88. जब लग नाता जगत का ,तब लग भगति न होय।
नाता तोड़े हर भजे ,भगत कहावे सोय।।
अर्थ – परमात्मा की भक्ति के लिए तो हमें इस संसार से अपना नाता तोड़ना ही पड़ेगा। हमारा जीवन काल बाहरी दुनिया में ही उलझा हुआ निकल जाता है लेकिन इस बीच यह तो भूल ही जाते हैं कि हमारी आत्मा प्रदूषित हो रही है परमात्मा से बिछड़ने की वजह से।
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89. लिखा लिखी की है नहीं ,देखा देखि बात।
दुल्हा दुल्हन मिल गए ,फीकी पड़ी बरात।।
अर्थ – यहां पर कबीरदास दूल्हा दुल्हन के मिलन से तात्पर्य करते हैं आत्मा परमात्मा के मिलन का। वह कहते हैं कि जब हमारी आत्मा परमात्मा में पूरी तरीके से लीन हो जाती है तो हमें यह बाहर की बारात अच्छी नहीं लगती। यह पूरा संसार फीका लगने लगता है।
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90. देख पराई चौपड़ी ,मत ललचावे जिये।
रूखा सूखा खाय के ,ठंडा पानी पिये।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि दूसरों के संपत्ति से, चकाचौंध से मत जलो। हमे जो मिला है जितना मिला है हमेशा उसी में संतुष्ट रहना चाहिए। कबीर दास दोहे में यह भी कहते हैं कि रुखा सुखा ही खाओ लेकिन संतुष्ट रहो, ठंडा पानी पीकर सो जाओ।
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91. साधु कहावत कठिन है , लम्बा पेड़ खजूर।
चढ़े तो चाख्ये प्रेम रस ,गिरे तो चकनाचूर।।
अर्थ – वह मार्ग जो हमें ईश्वर की तरफ पहुंचाता है उस पर चलना बहुत कठिन है। खजूर के पेड़ की ही तरह लंबा है। अगर चढ़ गए तो प्रेम का प्याला मिलेगा लेकिन अगर इस पेड़ पर से गिर गए तो काफी घाव भी होंगे।
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92. चिंता ऐसी डाकिनी, काटि करेजा खाए।
वैद्य बिचारा क्या करे, कहां तक दवा खवाय॥
अर्थ – चिंता ऐसी डरावनी सी डायन है, जो हमारे कलेजे को दे काटकर खा सकती है। किसी भी वैद्य के पास चिंता करने का कोई इलाज नहीं होता है, ना ही कोई दवा होती है। चाहे वजह कोई भी हो एक चिंतित इंसान का दुख वही समझ सकता है जो खुद भी इस राह से गुजरा हो।
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93. अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि हमारा मन भोला है। वह इस संसार को नहीं समझता। मन नहीं जानता है कि क्या चीज के लिए सही है और क्या बुरी। कबीर कहते हैं कि हमें अपने मन को हमेशा काबू में रखना चाहिए ताकि यह अपने हित के चक्कर में किसी मुसीबत में न आ पड़े।
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94. करु बहियां बल आपनी, छोड़ बिरानी आस।
जाके आंगन नदिया बहै, सो कस मरै पियास।।
अर्थ – मनुष्य बाहर की चका चौदं में ही फंसा रहता है और अपने मन के अंदर बह रहे शीतल जल को नहीं पहचान पाता। कबीर कहते हैं कि तुम प्यासें क्यूं हो? अपने मन के आंगन में बह रहे नदी को पियो और अपनी प्यास बुझाओ।
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95. कहना था सो कह चले, अब कुछ कहा न जाय।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय॥
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि मुझे तो जो कहना था वह मैंने कह ही दिया है और अब मैं यहां से जा रहा हूं। ईश्वर के बिना तो हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है हमें उन्हें समाना ही है जिस तरह लहरें दरिया में समा ही जाती हैं।
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96. कली खोटा जग आंधरा शब्द न माने कोय।
चाहे कहूँ सत आईना, जो जग बैरी होय॥
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि यह पूरा जग अंधकार में डूबा हुआ है। इसे न तो मेरी दिखाई हुई चीज दिखती है, ना ही मेरी कही हुई चीज सुनाई देती है। मैं जिन्हें भली बात बताता हूं वह मेरे दुश्मन ही बन जाते हैं।
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97. जागन मे सोवन करे, साधन मे लौ लाय।
सूरत डोर लागी रहै, तार टूट नाहिं जाय॥
अर्थ – कबीर कहते हैं कि हमारा हर क्षण ईश्वर की याद में व्यतीत होना चाहिए। वह चाहते हैं कि हम हर वक्त ईश्वर को याद करते रहे। तुम जग रहे हो या तुम सो रहे हो हरि को याद करते रहो वरना कहीं हरी नाम का तार कहीं टूट ना जाए।
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98. दिल का मरहम कोई न मिला, जो मिला सो गर्जी।
कहे कबीर बादल फटा, क्यों कर सीवे दर्जी।।
अर्थ – कबीर बताते हैं कि बहुत ढूंढने के बावजूद भी इस संसार में उन्हें कोई भी ऐसा नहीं मिला जो उनके हृदय को शांत कर सके। हर कोई अपने मतलब का ही कहता है। यह सब देख कर उनका मन रूपी बादल मनो फट सा गया तो उसे दर्जी क्यों सीए।
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99. जब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर।
तब लग जीव कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर।।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक आसमान में सूरज नहीं उगता तब तक तारे जगमगाते रहते हैं लेकिन जैसे ही सूरज का उदय होता है सितारे गुमनाम से हो जाते हैं। इसी तरह से जब तक हमें ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती तब तक हमें संसार में ही उलझे रहते हैं। इसे समझ नहीं पाते।
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100. सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार॥
अर्थ – यहां पर कबीरदास सज्जन पुरुष को सोने से तोलते हुए कहते हैं कि एक सज्जन पुरुष सोने की तरह होता है। अगर उसे 100 बार भी तोड़ कर फिर से बनाया जाए तब भी वह बिल्कुल पहले जैसा ही रहेगा।
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Top 101 to 120 कबीर के दोहे अर्थ सहित
101. जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय।
नाता तोड़े हरि भजे , भगत कहावें सोय।।
अर्थ – कबीर दास का मानना था कि जब तक हमें संसार से नाता रखेंगे तब तक भक्ति में पूरी तरह से लीन होना हमारे लिए असंभव सा ही रहेगा। वह कहते हैं कि भक्ति में तभी लीन हुआ जा सकता है जब इस संसार से नाता तोड़ा जाए।
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102. बानी से पहचानिये, साम चोर की घात।
अंदर की करनी से सब, निकले मुहँ कई बात।।
अर्थ – कौन कैसी बातें करता है इस बात पर ध्यान देकर हम जान सकते हैं कि वह इंसान भीतर से कैसा है। जो व्यक्ति जिस तरह की बात बोलता है वह उसी प्रकार का होता है। इसी वजह से हमें लोगों के बोलचाल को पहचानना चाहिए ताकि हम उस इंसान को पहचान सके।
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103. जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव।।
अर्थ – इस संसार में ऐसे कई लोग हैं जो भक्ति सिर्फ अपने मतलब के लिए किया करते हैं। अगर आप फल की चेष्टा के कारण भक्ति करेंगे तो वह भक्ति कहलाए गी ही नहीं। वह परमेश्वर तुझे कभी नहीं मिल सकता जब तक तुम्हारी भक्ति बिना किसी लाभ के ना हो।
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104. जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम।।
अर्थ – जो चीज हमें पसंद आ जाती है, हम उसी के बारे में सोचते रहते हैं। बिल्कुल इसी तरह से एक भक्त अपने परमात्मा के बारे में ही सोचता रहता है। उसे अपने परमात्मा के अलावा कुछ और दिखाई ही नहीं देता।
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105. फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त-असन्त।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त।।
अर्थ – ऐसा कहते हैं कि जिस इंसान के पास ज्ञान ही नहीं है वह कैसे पहचानेगा कि कौन संत है और कौन संत नहीं है। ऐसे इंसान को तो संत वही लगेंगे जिसके आगे पीछे 10-20 लोग खड़े हो जाएं।
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106. दया भाव हृदय नहीं, ज्ञान थके बेहद।
ते नर नरक ही जाएंगे, सुनी-सुनी साखी शब्द।।
अर्थ – वह इंसान जिसके हृदय के अंदर दया की भावना बस्ती ही नहीं है। ऐसा व्यक्ति चाहे कितना भी प्रयत्न कर ले। बैठकर कितनी भी कथाएं तथा भजन सुन ले लेकिन उसे भोगना नरक ही है।
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107. दया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय।
सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय।।
अर्थ – हम हमेशा कुछ सवालों में ही उलझे रहते हैं जैसे किस पर दया करें और किस पर नहीं। यह सारे ही फिजूल के सवाल है। चींटी हो या हो हाथी हर जीव को भगवान ने बनाया है इसीलिए हमें सबके साथ दया की भावना रखनी चाहिए।
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108. जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय।।
अर्थ – यहां पर “मैं” का मतलब अहंकार से है। जब अहंकार हमारे अंदर होता है तब हमें गुरु नहीं मिलते लेकिन जैसे ही हम गुरु को पूरी तरह से अपनाते हैं वैसे ही हमारा अहंकार मिट जाता है। जहां परमात्मा है वहां अहंकार कभी वास नहीं कर सकता।
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109. छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय।।
अर्थ – कबीरदास प्रेम का अर्थ समझाते हुए कहते हैं कि जो पल भर में चढ़ और पल दाई में उतरे उसे कभी भी प्रेम मत समझ लेना प्रेम एक ऐसा देश है जो हड्डियों के अंदर तक समा जाता है और जिंदगी भर महसूस होता है
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110. जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम।
दोनों कबहुँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम।।
अर्थ – जहां पर इच्छाएं होती हैं वहां पर कभी भी प्रभु नहीं हो सकती तथा जहां पर प्रभु होते हैं वहां पर इच्छाएं नहीं होती। यह दोनों चीजें कभी भी मिल नहीं सकती जैसे की रात और दिन कभी भी एक दूसरे से मिल नहीं सकते। यह होना असंभव ही है।
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111. कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय।
टूट-टूट के कारनै, स्वान धरे धर जाय।।
अर्थ – कबीर दास बताते हैं कि धैर्य धारण करना कितना आवश्यक है हमारे जीवन में। हाथी अपने धीरज की वजह से ही मन भर खाता है लेकिन वही एक कुत्ता दर-दर भटकता है अपना पेट भरने के लिए।
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112. काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं।।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं हमारे शरीर का क्या ही भरोसा है आज सांस ले रहे हैं क्या पता कल को सांस ना ले पाए। वह कहते हैं कि जब जब हम सांस लेते हैं हमें अपने परमात्मा को ध्यान में रखना चाहिए। इसके अलावा इसका कुछ भी इलाज नहीं है।
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113. काया काढ़ा काल धुन, जतन-जतन सो खाय।
काया ब्रह्म ईश बस, मर्म न काहूँ पाय।।
अर्थ – धन हमारी काया को हर पल धीरे-धीरे खो रहा है। हमारे हृदय में ही ईश्वर बसते हैं या कोई नहीं जान सकता। सिर्फ बिरला ही है जो यह बात जानता है।
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114. ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय।
नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाये।।
अर्थ – पानी जब भी फैलता है वह नीचे ही फैलता है कभी भी वह ऊंचाई पर नहीं फैलता है। इसका तात्पर्य यह कि जो भी इंसान नीचे झुकेगा उसे जी भर कर पानी पीने मिलेगा लेकिन जो झुकने से इंकार कर देगा उसे पानी प्राप्त नहीं होगा।
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115. सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय।
जैसे दूज का चंद्रमा, शीश नवे सब कोय।।
अर्थ – घर हो या बाहर छोटा रहने में ही भलाई है। वह लोग जो छोटे बन कर रहते हैं उनके सब काम हो जाते हैं आसानी से बिल्कुल उसी तरह से जिस तरह हम दूज का चंद्रमा को सर झुका कर देखते हैं।
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116. संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक।
कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक।।
अर्थ – हमें हमेशा ही जितना हो सके उतना सच्चाई को फैलाना चाहिए क्योंकि वह व्यक्ति जो सच्चाई को दूसरे लोगों तक पहुंचाता है तथा रोटी का टुकड़ा भी सब में बांटता है उसकी हर भूल चूक माफ है।
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117. मार्ग चलते जो गिरे, ताकों नाहि दोष।
यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष।।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि अगर तुम रास्ते में चलते हुए कभी भी गिर जाते हो तो चिंतित मत होना क्योंकि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। दोष तो उनका होता है जो गलती तो करते हैं लेकिन उसे सुधारने का एक बार भी प्रयत्न नहीं करते।
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118. जब ही नाम हृदय धरयो, भयो पाप का नाश।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास।।
अर्थ – जिस तरह से अग्नि पूरी घास को जला देती है उसी तरीके से हरि का नाम सारे पाप नष्ट कर देता है। कबीरदास कहते हैं कि अपने हृदय से पाप को जलाने के लिए हरि का नाम लो।
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119. काया काठी काल धुन, जतन-जतन सो खाय।
काया वैद्य ईश बस, मर्म न काहू पाय।।
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि काठ जैसी प्रतीत होती लकड़ी के हमारे शरीर को काल यानी की धन किस तरह से खाता जा रहा है। हमें पता भी नहीं चल रहा। यह बात बहुत कम ही इंसान जानता है कि हमारी इस काया में भगवान का वास होता है।
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120. सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह।
शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह।।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि ज्ञान के बिना कोई भी साधु नहीं बन सकता बिल्कुल उस तरह ही जिस तरह से दौलत तथा धन के बिना कोई भी शाह नही बन सकता।
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Top 121 to 140 कबीर के दोहे अर्थ सहित
121. बाहर क्या दिखलाए, अनंतर जपिए राम।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम।।
अर्थ – बाहर के दिखावे से तुम्हें क्या ही काम हो सकता है यह सारी मोह माया है और कुछ भी काम नहीं आने वाला तुम्हारे। तुम्हें तो अपने भगवान से मतलब रखना चाहिए इसलिए चुप चाप से सिर्फ उन का जाप करते रहना चाहिए।
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122. फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम।
कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम।।
अर्थ – अगर तुम भगवान की सेवा इसलिए करना चाहते हो क्योंकि इसमें तुम्हारा स्वार्थ छुपा है, कहीं ना कहीं तुम्हारा फायदा छुपा है। इस भक्ति को भक्ति नहीं कहेंगे। यह तो तुम अपने स्वार्थ के लिए कर रहे हो। सेवक वह हुआ जो निस्वार्थ काम करें।
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123. तेरा सांई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढूँढ़त घास।।
अर्थ – भगवान तो हमारे अंदर ही समाया हुआ है लेकिन हमेशा हम इसे बाहर की दुनिया में ढूंढते रहते हैं बिल्कुल उसी तरह से जिस तरह से कस्तूरी का हिरन कस्तूरी को बाहर के घास में ही ढूंढता रहता है।
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124. कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव।
कहत कबीरा या जगत में नाही और उपाव।।
अर्थ – यह ब्रह्मांड हमारे लिए एक भवसागर की नाव है जिसमें किसी को भी शांति नहीं मिलती। इस भवसागर से उतरने के लिए हमें राम का नाम तो जपना हीं होगा। इसके अलावा कोई और उपाय है भी नहीं।
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125. कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि जरा देखो तो तुम्हारा शरीर जा रहा है। यह शरीर तुम्हारे पूरे जीवन की पूंजी है। इसे ऐसे ही व्यर्थ न जाने दो। साधु की सेवा और गोविंद का नाम सुनकर इस शरीर को पाक बना दो।
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126. तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुँ गगन समाय।।
अर्थ – मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क को समझना काफी मुश्किल है। इसका शरीर तो बोहत के समान है पता नहीं कब आसमान में जा उड़े लेकिन उसका जो मन है वह कागज के समान है। इसका कोई ठीक नहीं क्या पता यह जल में जा समाए या फिर आसमान में जा उड़े।
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127. जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय।
मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय।।
अर्थ – जहां मैं हूं वहां गाहक नहीं तथा जहां गाहक है वहां मैं नहीं। यह दुनिया मूर्खों से भरी पड़ी है वह ज्ञान तो जानते नहीं अज्ञानी रूप में इधर-उधर भरमत रहते हैं।
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128. कहता तो बहुता मिला, गहता मिला न कोय।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय।।
अर्थ – यह संसार बहुत बड़ा है लेकिन फिर भी इसके अंदर आपको कहने वाले तो बहुत मिलेंगे लेकिन वास्तविक ज्ञान को समझने वाला एक भी नहीं मिलेगा। अब जो इंसान वास्तविक ज्ञान को ही ना समझ पाए उसके कहने पर चलना व्यर्थ है।
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129. आस पराई राखत, खाया घर का खेत।
औरन को पत बोधता, मुख में पड़ा रेत।।
अर्थ – हम मनुष्य दूसरों को देखने में ही अपना सारा जीवन बिता देते हैं। कबीर दास इस दोहे में कहते हैं कि तुम दूसरों के घर की रखवाली तो करते हो लेकिन अपने घर को क्यूं नहीं देखते हो। तुम दूसरों को ज्ञान तो बाटतें हो लेकिन खुद क्यों मूर्ख पड़े हो।
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130. सब धरती कागज करूँ, लेखनी सब वनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरुगुन लिखा न जाय।।
अर्थ – कबीर दास इस दोहे में कहते हैं कि अगर वे पूरी धरती को लेकर उसका कागज बनाएं, धरती पर पाए जाने वाले वनों को लेकर उनका कलम बनाएं और फिर समुंद्र को शाही बनाकर अगर गुरु को लिखें। तब भी यह सारी चीजें कम पड़ जाएंगे उनके नाम के आगे।
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131. बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव।।
अर्थ – कबीरा हमें बताते हैं कि जिस तरह से दूध में घी समाया हुआ रहता है उसी तरह से कबीर की साखी में चार वेद का ज्ञान समाया हुआ है। यह साखी उनके लिए घी के समान है।
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132. आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय।।
अर्थ – जिस इंसान के हृदय में प्रेम की आग लगी होती है वही जानता है कि इस वक्त कैसा महसूस होता है। कोई भी दूसरा इस आग को नहीं समझ सकता। सिवाए उस इंसान के जिसके मन में यह आग लगी हो या फिर उस इंसान की जिसने यह आग लगाई हो।
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133. साधु गाँठी न बाँधई, उदर समाता लेय।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय।।
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि साधु कभी भी अनाज को बांधकर अपने पास नहीं रखता वह हमेशा पेट भर खा लेता है क्योंकि उसे पता है कि ईश्वर उसके साथ ही है और वह उसे उतना ही देता है जिसे जितने की जरूरत होती है।
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134. घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार।
बाल सने ही सांइया, आवा अंत का यार।।
अर्थ – बचपन से जिंदगी के अंत तक हमारा मित्र तो हमारे अंदर ही हमारे साथ रहता है। कबीरदास कहते हैं कि तुम मन के परदे खोल कर तो देखो तुम्हें उसके दीदार अपने सामने ही हो जाएंगे।
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135. जागन में सोवन करे, सोवन में लौ लाय।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नहीं जाय।।
अर्थ – कबीरदास हम मनुष्य से कहते हैं कि तू जागते वक्त सो और सोते वक्त हरी के डोर को और मजबूत कर। वरना कहीं ऐसा ना हो कि हरी से जो तेरा तार जुड़ा हुआ है वह टूट न जाए।
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136. कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय।
जाके विषय विष भरा, दास बंदगी होय।।
अर्थ – इस दोहे के माध्यम से कबीर दास बोलते हैं कि इस संसार में या तो वह जाता है जो परमात्मा हो, प्रभु का जाप करने वाला या फिर विश्व उगलने वाला। इन तीनों के अलावा कोई तीसरा इंसान नहीं जागता है।
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137. ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊंच न होय।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय।।
अर्थ – अगर तुम्हारा जन्म किसी ऊंचे या रहीस खानदान में होता है लेकिन फिर भी तुम्हारी नीच हरकत करने पर तुम्हें बुरा कहा ही जाएगा। उसी तरह से जिस तरह से अगर कलश में हम शराब रखी जाए तो उसे अमृत नहीं कहा जाता।
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138. सुमरण की सुबयों करो ज्यों गागर पनिहार।
होले-होले सूरत में, कहें कबीर विचार।।
अर्थ – जो पनिहार होते हैं उनका काम है पानी भरना और इसीलिए एक पनिहार हमेशा ही अपनी निगाहें पानी भरने की बर्तन पर गड़ाए रहता है। उसी तरह से कबीरदास कहते हैं कि हमें पर भगवान भरोसा करना चाहिए और दिन रात उनका जाप करना चाहिए।
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139. सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल।
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल।।
अर्थ – कबीर दास दोहे के द्वारा हमें जड़ों की अहमियत बताते हुए कहते हैं कि जड़ों का मजबूत होना अति आवश्यक है क्योंकि उस पर ही निर्भर करता है कि पेड़ की पकड़ कितनी गहरी होगी। हमें भी ईश्वर की जड़ों पर भरोसा रखना चाहिए।
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140. जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रुख।
अनुभव भाव न दरसते, ना दुःख ना सुख।।
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि जो इंसान राम के नाम से नहीं बना है वह कभी भी फल-फूल नहीं सकता उसी तरह से जिस तरह से अगर कोई पेड़ सूख जाए तो उसमें फल तथा फूल कभी भी जी नहीं सकते।
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Top 141 to 160 कबीर के दोहे अर्थ सहित
141. सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और।।
अर्थ – जिस तरह से एक शेर पूरे जंगल पर राज करता है फिर भी अकेला पूरे जंगल में दौड़ता फिरता है उसी तरह से जिस तरह से हमारा मन इस शरीर के अंदर पूरे दिन बेचैन रहता है और इधर-उधर घुमा करता है।
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142. यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो।
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो।।
अर्थ – कबीर दास दोहे में कहते हैं कि जो माया है वह चुहरी है इसनें उलझा तो रखा है दोनों बाप बेटों को लेकिन इन दोनों में से यह कभी भी किसी का भी साथ नहीं देगी और दोनों का साथ छोड़ देगी।
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143. जहर की जमीं में है रोपा, अभी खींचे सौ बार।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार।।
अर्थ – कबीर दास दोहे के द्वारा कहते हैं कि समझो धरती को जिसे छोड़ना है अब वह तो उसे वैसे ही नहीं छोड़ेगा उसने पहले से ही जमीन में विष को दबा रखा है। अब तो सागर से भी अमृत खींचने पर कोई लाभ प्राप्त नहीं होने वाला।
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144. जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि इन संसार में तुम्हें कोई भी अपना दुश्मन नहीं मिलेगा अगर तुम अपना मन शांत रखते हो तो। जो तुम अपने अंदर की बुराइयां ही दफन कर दो तो हर कोई तुम पर दया करेगा।
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145. जो जाने जीव न अपना, करहीं जीव का सार।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दुजी बार।।
अर्थ – जीवन एक अनमोल रतन है जो अगर तुम्हें मिला है तो इससे राम नाम से भर दो। क्या पता अगली बार हमें या अनमोल रतन नसीब हो या ना नसीबो इसीलिए कम से कम इस जीवन में तो अच्छे कर्म कर लो।
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146. कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार।
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार।।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने तो काफी लोगों को पुकारा था चंदन की डाल पर बैठकर उनका मार्गदर्शन करने के लिए लेकिन अब वे लोग ही उनके पास नहीं आए तो कबीर क्या ही करें।
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147. लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय।
जीय रही लूटत जाम फिरे, मैंढ़ा लूटे कसाय।।
अर्थ – कबीर पूछता है कि तू किस के भरोसे बैठा हुआ है जिस तरह से जीव को यमराज मारता है, मैंढ़ा को कसाई मारता है। तुम्हें ऐसे बैठे नहीं रहना चाहिए गुरु से शिक्षा लो तथा अज्ञान के सागर से निकलो।
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148. मूर्ख मूढ़ कुकर्मियों,निख सिख पाखर आही।
बंधन कारा का करे, जब बाँध न लागे ताही।।
अर्थ – जब उस मूर्ख को पढ़ाई लिखाई करने के बाद भी ज्ञान की बूंद तक प्राप्त नहीं हुई तो आप उसे समझा कर क्या ही करेंगे। ऐसे मनुष्य से दूर ही रहना चाहिए क्योंकि समझाने के बाद भी इन्हें कुछ नहीं समझ आएगा।
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149. एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार।
है जैसा तैसा ही रहे, रहें कबीर विचार।।
अर्थ – कबीर जब उसे एक कहते हैं तो लगता है कि अब पूरा जगत उसमे समाया हुआ है, जब उसे दो कहते हैं तो लगता है कि बुराई समा गई है। हे कबीर! वह तो ऐसा कहते हैं कि विचार जैसा है वैसा ही रहे।
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150. जो तू चाहे मुक्त को, छोड़ दे सब आस।
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास।।
अर्थ – इस दोहे में कबीर बताते हैं कि परमात्मा कहते हैं कि अगर हम उन्हें पाना चाहते हैं तो हमें संसार की मोह माया छोड़ कर उनकी छत्रछाया में जाना होगा। यह सांसारिक जीवन छोड़कर ही हम परमात्मा के हो सकते हैं।
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151. सांई आगे साँच है, सांई साँच सुहाय।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भूण्डाय।।
अर्थ – यह परमात्मा तो हमेशा सच सुनना ही पसंद करते हैं। झूठ के पर्दे में लिपट कर बात करना यह तुच्छ मनुष्य करते हैं। तू चाहे तो सर झुका कर ही इस ईश्वर से सच बोल लेकिन याद रखना ईश्वर को सच ही भाती है।
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152. अपने-अपने साख कि, सबही लिनी मान।
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान।।
अर्थ – हरि के मन को जान पाना काफी कठिन है। हरि को वही जान सकता है जो घमंड की छाया से निकलकर हरि का नाम पुकारे। जो इंसान घमंड में ही रह जाता है वह कभी हरि की माया को नहीं पहचान पाता।
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153. खेत न छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह।
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह।।
अर्थ – वह बलवान आदमी कभी मैदान छोड़कर नहीं भागता जिसे मरने का खौफ ना हो। वह अकेले कई सैनिकों से लड़ने का बल अपने सीने में रखता है। जब उसे मरने का खौफ ही नहीं तो वह किससे डरे।
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154. लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत।
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत।।
अर्थ – कबीरदास ऐसा कहता है कि चाहे सिंह हो, चाहे कोई योग्य बच्चा हो। वह कभी भी अपने पुराने मांग को नहीं छोड़ता। वह कायर ही होते हैं जो अपना रास्ता पल-पल बदलते हैं।
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155. सन्त पुरुष की आरसी, संतों की ही देह।
लखा जो चाहे अलख को, उन्हीं में लख लेह।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि एक संत पुरुष का शरीर बिल्कुल साफ होता है। उसके मन में जाकर तुम ईश्वर को देख सकते हो। अगर तुम ईश्वर से मिलना चाहते हो तो किसी संत के मन में झांक कर एक बार देख लेना।
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156. भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग।।
अर्थ – कबीर पूछता है कि तुम भूख भूख क्यूं लोगों को सुनाते रहते हो। क्या वह तुम्हारा कभी पेट भरेंगे? लोग पेट भरे या ना भरे सही समय आने का इंतजार करो ईश्वर तुम्हें जरूर वह सारी चीजें उपलब्ध कराएगा जिसकी तुम्हें आवश्यकता है।
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157. गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव।
कहे कबीर बैकुंठ से, फेर दिया शुकदेव।।
अर्थ – जिस इंसान को किसी ने अपना गुरु तो नहीं बनाया लेकिन वह महापुरुष अपने जीवन के शुरुआत से ही सबकी सेवा में लगा हुआ है। ऐसे महापुरुष को तो शुकदेव ही कहेंगे।
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158. प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय।।
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि प्रेम भाव हमेशा एक ही होना चाहिए भले तुम अनेक भेष में आओ। चाहे तुम कितने घर में ही रहते हो या कहीं भी चले जाओ प्रेम भाव को सदा एक ही रहने दो।
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159. कांचे भांडे से रहे, ज्यों कुम्हार का नेह।
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह।।
अर्थ – जब कुम्हार अपना कच्छा बर्तन बना रहा होता है तो वह उसे पूरे स्नेह और प्यार से बनाता है। ऊपर से तो करक रहता है लेकिन भीतर से वह उस कच्चे बर्तन की रक्षा करता है।
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160. सांई ते सब हॉट है, बंदे से कुछ नाहिं।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं।।
अर्थ – साईं तो इस दुनिया में कुछ भी कर सकता है। वह बहुत शक्तिशाली होता है लेकिन हम उसके बंदे हैं हम से कुछ नहीं होगा हम बस राई का पहाड़ बनाना जानते हैं और पहाड़ का राई।
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Top 161 to 180 कबीर के दोहे अर्थ सहित
161. केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि कितने दिन तो ऐसे ही निकल गए तुमने अभी तक प्रभु के साथ अपना प्रेमभाव नहीं दिखाया। कबीर कहते हैं कि जिस तरह बंजर जमीन पर कभी भी उपज नहीं हो सकती उसी प्रकार बिना स्नेह और प्यार के कोई भक्ति नहीं होती।
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162. एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय।
एक से परचे भया, एक मोह समाय।।
अर्थ – हम सब एक से अनंत तो हो ही चुके हैं अब आनंद से एक भी हो जाए। अगर तुम इस ईश्वर से अच्छी तरह परिचित हो जाओ तो खुशी-खुशी अनेक से एक में समा जाओगे।
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163. साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध।।
अर्थ – साधु, सती और सूरमा की बातें अगाध होती हैं यानी कि उनकी बातों की गहराई का हम तनिक सा भी अंदाजा नहीं लगा सकते। हमारे जैसे साधारण जी उनसे अपनी समानता ना ही करें तो बेहतर होगा।
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164. हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप।।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर का नाम लेने से हमें शांति मिलती है तथा हमारे अंदर का मोह माया से भरा आग बुझ जाता है। दिन और रात घबराहट दूर होती है और ईश्वर हमारे सामने प्रकट होते दिखाई देते हैं।
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165. आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत।।
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि एक सच्चा जोगी बनने के लिए दृढ़ संकल्प से मेहनत करनी पड़ती है। तुम्हें आशा तथा मनशा को आग में जलाना होगा एक सच्चा जोगी बनने के लिए।
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166. हंसा मोती विणन्या, कुंचन थार भराय।
जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय॥
अर्थ – अगर कभी सोने की थाली में भी मोतियां बीके फिर भी उनकी कद्र तो वही करेगा ना जो उनकी अहमियत जानता होगा। आम आदमी तो कभी उनकी कद्र नहीं कर पाएगा। उनकी कद्र तो जोहरी ही कर सकता है।
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167. कहना था सो कह चले, अब कुछ कहा न जाय।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय॥
अर्थ – कबीरदास यहां पर कहते हैं कि मुझे तो जो कहना था वह मैं कहके जा रहा हूं। अब मुझसे कुछ और कहां नहीं जाएगा। जिस तरह लहरी ऊंची उठने के बाद भी अपने सागर में समा जाती हैं उसी तरह हमें भी परमात्मा में समाना है।
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168. वस्तु है सागर नहीं, वस्तु सागर अनमोल।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल॥
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि अनमोल ज्ञान तो हमें हर जगह मिल जाता है लेकिन हम उसे पा नहीं पाते क्योंकि ज्ञान को पाने के लिए अच्छे कर्म करने की भी आवश्यकता है। हम उस ज्ञान को जाने देते हैं जो की सबसे अनमोल वस्तु है।
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169. कली खोटा जग आंधरा शब्द न माने कोय।
चाहे कहूँ सत आईना, जो जग बैरी होय॥
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि इस कलयुग में ज्ञान को समझने वाला कोई नहीं है। जैसे तुम ज्ञान देने जाओगे वह तुम्हें ही बुरा समझ लेगा। इस अंधकार से भरी दुनिया में कोई किसी का नहीं होता।
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170. लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभी चोंच जरि जाय।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय॥
अर्थ – जब भी हमें किसी चीज की आदत हो जाती है तो वह चीज हमारे लिए इतनी प्रिय हो जाती है कि चाहे उससे कितना भी नुकसान हमें हो रहा हो हम उसे छोड़ने का प्रयत्न नहीं करते। इसी तरह से जब भक्त को ईश्वर की श्रद्धा में ही आनंद मिलने लगता है तो वह उसे कभी नहीं छोड़ना पसंद करता।
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171. अंतर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार।
जो तुम छोड़ो हांथ तो, कौन उतारे पार॥
अर्थ – कबीर दास जी भगवान से कहते हैं कि तुम अंतर्यामी हो, तुम तो हमारे आत्मा का आधार हो। अगर ईश्वर ही हमारा साथ छोड़ देगा तो हमें मुश्किलों से कौन बचाएगा और कौन आने वाली मुश्किलों से आगाह करेगा हमें?
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172. मैं अपराधी जन्म का, नख-शिख भरा विकार।
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो सम्हार॥
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास कहते हैं कि मैं जन्म से ही अपराधी हूं मैंने कई अपराध किए हैं मेरे नाखून से लेकर चोटी में अपराधी भरा है। तुम तो हम सबके प्रभु हो मुझे अपनी शरण में लो और सुधारो।
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173. प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय॥
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि प्रेम ऐसी चीज है जिसकी ना तो उपज हो सकती है और नहीं उसे कहीं से बाजारों में बेचा जा सकता है। यह एक ऐसी चीज है जिसे राजा भी धारण कर सकता है तथा प्रजा भी, जो भी इसे मोह ले।
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174. प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय॥
अर्थ – जो प्रेम का प्याला पी ले वह लोभी नहीं हो सकता क्योंकि प्रेम करना तथा निभाना काफी मुश्किल है। प्रेम दक्षिणा में प्रेमी का सर मांगती है और एक लोभी तो कभी इतनी बड़ी दक्षिणा दे ही नहीं सकता।
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कबीर दास के दोहे
175. सुमिरन सों मन लाइए, जैसे नाद कुरंग।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्राण तजे तेहि संग॥
अर्थ – कबीर कहते हैं कि भगवान की भक्ति में इतना ध्यान लगाइए कि किसी चीज का सुध-बुध ही ना हो। भक्तों की भक्ति इतनी गहरी होनी चाहिए की प्राण भी जाएं तो भक्तों की लीनता खराब ना हो।
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176. सुमिरत सूरत जगाय कर, मुख से कछु न बोल।
बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल॥
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि तुम ईश्वर का स्मरण करो बिना मुंह से कुछ बोले। बाहर के सारे रिश्ते तोड़ कर ईश्वर के साथ एक नया रिश्ता बनाओं ईश्वर की स्मरण के द्वारा।
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177. छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि हमारे परमात्मा तो दूध के समान है और संसार का व्यवहार तो पानी की तरह है। एक साधु ही हंस के तरह आकर इस पानी में से दूध को अलग कर सकता है।
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178. जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम।।
अर्थ – एक मछली को उसका पानी सबसे अधिक प्यारा होता है, उसी तरह एक लोभी को उसका धन प्यार होता है। कुछ ऐसे ही मां को उसका बालक प्यारा होता है और भक्त को उसका ईश्वर।
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179. बानी से पहचानिए, साम चोर की धात।
अंदर की करनी से सब, निकले मुँह की बात।।
अर्थ – साधु और चोर दोनों ही वाणी से अपने मन के अंदर का पोल खोल देते हैं। एक इंसान के मन में कुछ भी चल रहा हूं उसके सामान पर वह बात आ ही जाती है जो वह सोचता रहता है।
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180. अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुंबक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ।।
अर्थ – जिस तरह से एक सेनानी के शरीर में तीर की भाल अटक जाती है और बिना चुंबक के नहीं निकल सकती बिल्कुल उसी तरह हमारे अंदर बुराइयां अपना घर बना लेती हैं और वह बिना जाप के नहीं हट सकती।
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Top 181 to 200 कबीर के दोहे अर्थ सहित
181. आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक।।
अर्थ – जब हमें कोई गाली देता है तो स्वभाविक रूप से हम भी उसे पलट कर गाली देते ही हैं। ऐसे गाली आती तो एक है लेकिन आ कर अनेक हो जाती है। कबीरदास जी यही चाहते हैं कि तुम पलट के गाली मत दो। ऐसा करने से एक गाली एक ही रहेगी।
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182. आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रगटित होय।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि जब भी समुंद्र में आग लगती है तो धुआ तो जरूरी होता है लेकिन जब भक्तों के मन में भक्ति की आग लगती है तो वह आग कोई दूसरे आदमी तक नहीं पहुंच सकती। वह भक्ति ही जानता है बस उसे।
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183. उज्ज्वल पहरे कापड़ा, पान-सुपारी खाय।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय।।
अर्थ – कबीरदास जी कहते हैं कि तुम साफ उज्जवल कपड़े तो पहनते हो पान सुपारी भी खाते हो लेकिन इस तरह हरि का नाम न लेने से तुम्हें नरक की प्राप्ति के सिवा कुछ नहीं मिलेगा।
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184. उतने कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि ऊपर में स्वर्ग से तो कोई नहीं आता है तो फिर कैसे ही पता होगा कि वहां क्या होता है। धरती पर तो तुम बुराइयों का जो पोटरा बांध रहे हो तुम्हें उसे ही लेकर यहां से जाना होगा।
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185. अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय।
मानुष से पशुया भया, दाम गाँठ से खोय।।
अर्थ – शराब की बुराई करते हुए कबीरदास कहते हैं कि यह कोई पाक चीज नहीं है। इसे पीकर लोग अपना होश खो आते हैं, गुस्सा करते हैं तथा मूर्ख जैसी बातें भी करते हैं। मनुष्य होकर जानवर जैसा व्यवहार करते हैं और अलग से इसका खर्चा भी बहुत आता है।
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186. ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊंच न होय।
सुबरन कालस सुरा भरा, साधु निन्दा सोय।।
अर्थ – ऊंचे कुल में जो इंसान जन्म लेता है लेकिन उसकी करनी ऊंची नहीं होती ऐसे इंसानों का जन्म लेना ही व्यर्थ है। जिस तरह से साधु की कलश में अगर शराब रख दी जाए तो साधु उसकी निंदा ही करेगा।
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187. कबीरा संगत साधु की, ज्यों गंधी की वास।
जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी बास सुवास।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि एक साधु का साथ गंधी के समान होता है। जिस प्रकार पुष्प सुगंध फैलाते हैं भली उनसे कोई सीधा फायदा नहीं होता फिर भी उसकी खुशबू मन को शांत रखती है। इसी तरह एक संत की दोस्ती भी आपके मन को शांत रखती हैं।
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188. कबीरा संगति साधु की, जौ की भूसी खाय।
खरी खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय।।
अर्थ – कबीर दास का मानना है कि एक साधु के साथ रहकर भले ही बोसी ही खानी क्यों नंबर भला गुना सही है एक बुरे आदमी के साथ रहने से। साधु की संगति को चुनो क्योंकि वहां से तुम्हें बहुत कुछ सीखने मिलेगा।
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189. कबीरा संगति साधु की, हरे और की व्याधि।
संगति बुरी असाधु की, आठो पहर उपाधि।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि हमारे लिए एक साधु की संगत ही बेहतर है। अगर तुम साधु की संगति को छोड़कर किसी और की संगति के चक्कर में पढ़ोगे तो तुम पर आठों पहर उपाधि लगी रहेगी।
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190. कबीरा गरब न कीजिए, कबहुँ न हँसिये कोय।
अजहूँ नाव समुद्र में, का जानै का होय।।
अर्थ – कबीर जी कहते हैं कि कभी भी खुद पर गर्व ना करो और ना ही किसी का कभी मजाक उड़ाओ क्योंकि हम सब एक ही नाव पर बैठे हुए हैं कोई नहीं जानता कौन जिएगा और कौन मरेगा।
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191. कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत किजै जाय।
दुर्गति दूर वहावती, देवी सुमति बनाय।।
अर्थ – कबीर जी कहते हैं कि साधु-संतों से दोस्ती जितनी जल्दी हो उतना अच्छा है क्योंकि इससे दुर्गति दूर होती है तथा सुमति प्राप्त होती है। एक साधु का साथ हमेशा ही मनुष्य को प्रगति की ओर ले जाता है।
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192. कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय।
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि एक साधु की संगति कभी भी बेकार नहीं जाती है जिस तरह से चंदन के धुंआ से उत्पन्न हुए सुगंध को कभी भी नीम के धुंआ की जगह पर नहीं रखा जा सकता।
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193. को छुटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि संसार के बंधनों से कोई भी नहीं बच सकता। इसमें तुम उलझते ही जाओगे। जिस तरह से एक चिड़िया जितना ही निकलने की कोशिश करती है उतना ही उलझते जाती है।
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194. कबीरा लहर समुद्र की, निष्फल कभी न जाय।
बगुला परख न जानई, हंसा चुग-चुग खे।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि समंदर की लहरें कभी निष्फल नहीं जाया करती हैं। एक बगुला तो अपनी जीवन व्यतीत कर देता है मछली का शिकार करने पर वही हंस अपने जीवन में मोतियों को चुग चुग कर अपना जीवन सफल कर लेता है।
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195. कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय।
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय।।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि तुम धरती पर किस मकसद से आए तुमने तो वह भी पूरा नहीं किया और अब जब तुम्हारे जाने का समय हो गया है तो ईश्वर को याद भी नहीं किया। ना तो तुमने तो एक जाने के लिए ही कुछ मेहनत की ना ही धरती पर रह कर ईश्वर का स्मरण किया।
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196. कुटिल बचन सबसे बुरा,जासे होत न हार।
साधु बचन जल रूप है, बरसे अमृत धार।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि हमें कठोर वचन का इस्तेमाल कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि इंसान के दिल में जाकर चुभती है। एक साधु कभी कड़वे वचन का इस्तेमाल नहीं करता शीतल की वाणी बोलता है।
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197. कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय।
सो कहता वह जाने दे, जो नहीं गहना कोय।।
अर्थ – कबीरदास कहते हैं कि कहने वाले तो बहुत मिलते हैं लेकिन कोई ऐसा नहीं जो सारी अच्छी बातों को ग्रहण किए हुए हो। साधु के बारे में ज्ञान देना तो आसान है लेकिन साधु का जीवन जीना और साधू बनना काफी कठिन है।
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198. कबीर मन पंछी भया,भये ते बाहर जाय।
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि मेरा मन तो पंछी जैसा है वह संसार में उड़ता रहता है जिस पेड़ पर बैठता है उसी के फल खाता है और वैसे ही काम करता है। संगति हमारी जिंदगी में बहुत अहम भूमिका निभाती है। जिस इंसान की संगति जैसी होगा वैसा ही बनता है।
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199. कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर।
ताही का बखतर बने, ताही की शमशेर।।
अर्थ – कबीर कहते हैं कि लोहा तो एक ही है लेकिन इसे हम अलग तरीकों से गढ़कर अलग अलग धातुएं में बना सकते हैं। उसी तरह से ईश्वर तो एक ही है लेकिन वह हमारे सामने अलग-अलग रूपों में प्रकट होते हैं।
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200. कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह।।
अर्थ – हमें तब तक दान करना चाहिए जब तक हमारे पास हमारा यह शरीर है जिस दिन तुम्हारा यह शरीर मिट्टी में मिल गया उसके बाद कौन ही तुम्हें पूछेगा। इसी वजह से कबीर कहते हैं दान दक्षिणा किए जा।
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दोहों के द्वारा यह जो संदेश भेजना चाहते थे वह आज तक हमारे दिल में बसा हुआ है। कबीर अपने दोहों के द्वारा जाति भेद को मिटाना चाहते थे। यही वजह है कि कबीर के दोहे में हमें जाति तथा जाति भेद से जुड़ी काफी कहानियां जीने को मिल जाएंगी। इस आर्टिकल में हमने कबीर के दोहे हिंदी में (Kabir Ke Dohe In Hindi) दिए हैं।
कबीरदास ने जन्म तो लिया था एक मुस्लिम परिवार में लेकिन वह बचपन से ही हिंदू धर्म को मानते थे और हिंदू धर्म का काफी सम्मान भी किया करते थे। कबीर दास के दोहे में भी काफी बार इस बात का वर्णन किया गया है कि ना तो कबीर हिंदू है ना ही कबीर मुस्लिम कबीर सिर्फ शक्ति को मानते हैं।
कबीर दास भगवान को साहिब नाम से पुकारा करते थे और ऐसा कहते थे कि भगवान हर जगह होते हैं तथा वह हर उस इंसान में बसते हैं जो नेकी के रास्ते पर चल रहा है। सिर्फ भगवान के मामले में ही नहीं हर चीज के मामले में कबीर दास की सोच सबसे अलग हुआ करती थी।
कबीर दास ने जन्म लिया था बनारस में और यहां पर भी छोटी जाति के होने की वजह से उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। कबीरदास के सामने सबसे बड़ी चुनौती तब आई जब उन्हें रामानंद जी से मिलने नहीं दिया गया था। रामानंद जी काशी के बहुत बड़े योगी थे।

बनारस में हर कोई रामानंद जी को जानता था और घर-घर इनकी पूजा होती थी। कबीर दास रामानंद जी के बहुत बड़े भक्त थे और वह चाहते थे कि रामानंद जी ही उनके गुरु बने। दिक्कत की बात यह थी कि कबीर एक जुलाहा थे तथा रामानंद जी उच्च जाति के पंडित थे।
नीची जाति के होने की वजह से जब कबीर रामानंद जी के पास उनसे शिक्षा प्राप्त करने के लिए गए तब उनके बाकी शिष्यों ने कबीर का मजाक उड़ाया और उसे वहां से जाने को कह दिया। कबीर को दुख तब हुआ जब रामानंद जी ने भी उसका साथ नहीं दिया तथा उससे मुंह फेर लिया।
कबीर वहां से निराश होकर तो चले गए लेकिन उन्होंने मन में तो ठान रखी थी कि शिक्षा प्राप्त करेंगे तो रामानंद जी से ही करेंगे। ऐसा कहा जाता है कि रामानंद जी जहां पर स्नान ग्रहण करते हैं वहीं पर कबीर दास जाकर लेट गए और जब रामानंद जी ने अपना पैर उन पर रखा तो वह राम राम कहने लगे और फिर उन्होंने कबीर को अपना शिष्य बना लिया।
रामानंद जी से शिक्षा प्राप्त करने के बाद कबीर भी एक बहुत बड़े संत बन गए। उन्होंने काफी बच्चों को अपनी छत्रछाया तले पढ़ाया। कबीर दास ने हिंदू भक्ति आंदोलन में भी अपने दोहों के द्वारा काफी बदलाव लाए। गुरु ग्रंथ साहिब में हमें इसके बारे में बहुत कुछ पढ़ने मिलता है। कबीर के जाने के बाद उनके शिष्यों ने उनके द्वारा दिए गए ज्ञान को आगे बढ़ाया और समाज में फैलाया।
Note :- According to Wikipedia Kabirdas ji was born on 1398 or 1448
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Conclussion for “Top 200+ Popular Kabir Ke Dohe In Hindi” Post
कबीर के दोहों में जीवन के मूल्यों की सार्थकता और मानवीय संबंधों की महत्ता प्रकट होती है। उनके द्वारा स्वरचित किए गए दोहे हमें जीवन की सीख सिखाते हैं और हमें सही मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। कबीर के दोहे हमें एक एक अनमोल सत्य को गहराई से समझने का मौका देते हैं और हमें उन सत्यों को अपने जीवन में अमल में लाने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। उनकी कविताओं में नीति, सदाचार, सहनशीलता, और भावनात्मक बुद्धि के महत्व को प्रकट किया गया है।
कबीर के दोहे में उनकी विचारधारा का अद्वितीय रूप है जो सभी धर्मों और समाजों को प्रभावित करती है। उन्होंने समाज में विभाजन, विवाद, और असामंजस्य के खिलाफ विचारशक्ति की आवश्यकता को प्रमुखता दी है। उनकी रचनाओं के माध्यम से वे समाज को एकता, शांति, और सामरिकता की ओर प्रेरित करते हैं।
इन दोहों के माध्यम से हम सबको एक साथ आगे बढ़ने की बहुमुखी प्रेरणा प्राप्त होती है, जहां हम सभी धर्मों, जातियों, और व्यक्तियों के बीच एकता के मार्ग में साथ चलते हैं। कबीर के दोहे हमें एक सच्चे और प्रेमपूर्ण जीवन की ओर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं।
यह था एक छोटा सा अनुच्छेद कबीर के दोहों के महत्व को समझाने के लिए। उम्मीद है कि यह आपको पसंद आया होगा। आप हमेशा कबीर के दोहों को पढ़कर और उनका अध्ययन करके अपने जीवन को अच्छाई और प्रगति की ओर ले जा सकते हैं।
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